“आत्मज्ञान की खोज: सत्संग में अनुभवों का साझा करना”


आज हमने भण्डारे का सत्संग सुना जिसमें लगभग 90,000 लोग उपस्थित थे। रिवाज के मुताबिक़ सत्संग से पहले संगत ने शब्द गाये और फिर एक सुरीली आवाज़ वाले व्यक्ति ने अपना रचा हुआ शब्द सुनाया। उसने पिछले दो सत्संगों से पहले भी यह शब्द गाया था। फिर उसने भक्ति-भाव और वेदना भरी आवाज़ में कबीर साहिब का एक शब्द गाया। उसकी पेशकारी महान् थी और उसकी आवाज़ रसीली और दृढ़ता भरी थी। हम उसकी भाषा तो नहीं, पर उसके भाव ज़रूर समझ रहे थे।

महाराज जी के सभी सत्संगों के दौरान रिवाज के मुताबिक स्टेज पर उनके साथ दो पाठी बैठते हैं। वे दोनों मिलकर पूर्व में हुए सन्त- सतगुरुओं की पवित्र वाणी में से शब्द पढ़ते हैं। इन सभी सन्त सतगुरुओं ने जीवित गुरु से उपदेश लेकर शब्द-धुन द्वारा, आत्मा के निजघर सचखण्ड वापस पहुँचने का रास्ता तलाश करने को ही अपनी शिक्षा का आधार बनाया है। हर पंक्ति के गाए जाने के बाद महाराज जी उसके विषय की व्याख्या विस्तारपूर्वक करते हैं। साथ ही साथ कई दूसरे सन्तों की वाणियों में से उदाहरण दे-देकर इस शिक्षा को प्रमाणित करते हैं। सत्संग सरल और स्पष्ट होता है। उसमें रस्मी कार्यवाही कम से कम होती है। महाराज जी के प्रवचन बेजोड़ होते हैं। बहुत बड़ी गिनती में आये सीधे-सादे गाँव के लोग भी सहज ही आपके वचन समझ लेते हैं।

कुछ सत्संगों की समझ मुझे इस प्रकार लगी- हम किसी वृक्ष को देखकर हैरान होते हैं कि किस प्रकार एक छोटे-से बीज से इतना बड़ा वृक्ष बन गया है। महाराज जी ने छोटा-सा बीज कहते हुए साथ ही अपने सुन्दर हाथों से छोटे-से बीज के बारे में इशारा करते हुए कहा कि बीज में से जन्मा छोटा-सा पौधा, धीरे-धीरे परवरिश पाकर एक बई छायादार वृक्ष के रूप में फैल जाता है। हम देखते हैं कि इतना बड़ा वृक्ष उस छोटे से बीज में छिपा हुआ था। अगर पहले कोई हमें कहता कि इस छोटे से बीज में इतना बड़ा वृक्ष छिपा हुआ है, तो हम आसानी से विश्वास न कर पाते। इसी प्रकार शब्द और आत्मा इनसान के शरीर और मन के अन्दर ही हैं, लेकिन यह केवल पूर्ण सतगुरु के निजी सम्पर्क द्वारा ही विकसित हो सकते हैं।

हुजूर महाराज ने सचखण्ड से आत्मा के निचले मण्डलों में उत्तरत का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। सचखण्ड से नीचे उतरी आत्मा को मत और उसकी दासी माया रूपी ठगिनी ने इन्द्रियों के ज़रिये अपने सच्चे पर से गुमराह कर दिया । माया ने आत्मा द्वैत में फँसा दिया। परमात्मा से बिछुड़ी आत्मा अनेक शक्लों-पदार्थों के मोह में फँसकर अज्ञानता के अन्धेरे के कारण अनन्त दुःखों और मुसीबतों में घिर गयी। इसको अपने असल की याद नहीं रही जिस कारण यह अपनी वर्तमान हालत का अन्दाज़ा नहीं लगा सकती। इसके नये साथी मन और माया ने इन्द्रियों भोगों और विषय-विकारों के जो साधन इसके सामने रखे, उनके में फँसी आत्मा, कर्म और फल की पल-पल लम्बी और मजबूत रही जंजीर में जकड़ी गयी।

हुजूर ने समझाया कि आत्मा ने अन्तर्मुख होने के बजाये हॉर्ने अधीन होकर अपने इर्द-गिर्द जो कुछ भी देखा उसको प्राप्त क लिए बाहरमुखी दौड़ शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि वह इस जगत् के साथ और मजबूती के साथ बंध गयी, जबकि असलि है कि मुक्ति इसके अपने हाथ-पाँवों से भी नज़दीक है।

महाराज जी ने आगे फ़रमाया कि निज-घर जाने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी होम है। होमें क्या है? यह हमारी मैं मेरी है। यह जो हम कहते हैं कि यह मेरी काम है, मेरा मुल्क है, मेरी सन्तान है, मेरी जायदाद है, यह सब होमें है। हम होम के अधीन होकर जिन शक्लों-पदार्थों को अपना समझ रहे हैं, न इनमें से असल में कोई हमारा है और न ही कभी इनमें से सही अर्थों में सुख-शान्ति मिल सकती है। सच्ची- शान्ति हो या मैं मेरी को मार कर ही मिलती हैं।

जब किसी जीव को अपनी हालत के बारे में थोड़ा-सा भी अहसास होता है तो वह घर-बार का त्याग करके, मन्दिरों मसजिदों में चक्कर काट कर या खोखले बाहरमुखी कर्मकाण्डों का पालन करके अपने आपको निर्मल बनाने और अपना उद्धार करने का यत्न करता है।

हमारे उद्धार का एकमात्र अवसर मनुष्य जन्म है। मनुष्य जन्म में जरूरी है कि हम ऐसे मार्ग-दर्शक की शरण प्राप्त करें जो इस दुनिया की भूल-भुलैया में से निकलने का रास्ता जानता हो। ऐसे पूर्ण पुरुष से अपनी सुरत को तीसरे तिल पर एकाग्र करने की युक्ति सीखनी चाहिए। इस बात को समझाने के लिए महाराज जी ने फिर अपने कोमल हाथों से आँखों के बीच एक नुकते की तरफ़ इशारा किया। इस नुक्ते पर पहुँचकर हमारी सुरत, शब्द-धुन के निर्मल संगीत से जुड़ जाती है। शब्द रूपी यह निर्मल संगीत ही हमारे जीवन का आधार है। शब्द के निरन्तर अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे हमारा विवेक जाग्रत होता है और हमें सतगुरु के द्वारा बताये गये मार्ग के धुंधले से दर्शन होने शुरू हो जाते हैं। शुरू में सांसारिक समस्याओं के कारण हमें आन्तरिक एकाग्रता की दिव्य शान का पूरा अहसास नहीं होता. पर हमारे अन्दर रूहानी नूर उसी तरह मौजूद है, जिस तरह लकड़ी में आग छिपी होती है, जो युक्ति से लकड़ी पर लकड़ी रगड़ने से प्रकट हो जाती है।

 

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