“वापसी – हुजूर महाराज जी व सत्संगी समुदाय के इंग्लैण्ड यात्रा का अनुभव”।

सन्तमत में रुचि रखने वाले अंग्रेज़ों को नामदान मिलने और बड़ी गिनती में भारतीय सत्संगियों के इंग्लैण्ड आ जाने के कारण, यहाँ सत्संगियों की गिनती में काफ़ी वृद्धि हो गयी है। हमने सोचा कि सत्संगियों का एक समूह हवाई जहाज़ के रास्ते डेरे की यात्रा करें। कुछ सत्संगियों ने इस विचार को अमली रूप देने के लिए योजना तैयार कर ली। अन्त में गुरचेतन सिंह ने जो कि भारतीय संगत के प्रतिनिधि थे, अगली सर्दियों में डेरे की हवाई यात्रा का कार्यक्रम बना लिया और स्वीकृति लेने के लिए डेरे को लिख दिया। इस योजना को हमारे सतगुरु, महाराज चरन सिंह जी की दया भरी स्वीकृति मिल गयी।

भारतीय संगत के शेष सदस्यों की सहायता से, गुरचेतन सिंह यात्रा का प्रबन्ध करने में सफल हो गये और क्रिस्मस वाले दिन हम सभी भारत के लिए चल पड़े, पर वापस हम अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार आये।

हमारी पार्टी में सात अंग्रेज़ और तीस भारतीय थे, पर उनमें से सभी को नामदान नहीं मिला था। अंग्रेज़ सत्संगी थे- मिसेज़ मारग्रेट बैनसन कुक, मिसेज़ ऐलीनोरा जैप, मिसेज़ मे होल्ट, मिस्टर ऐलैक्स मैक्कासकिल, मिस्टर कलॉड लवलेस, मेरे पति रॉनल्ड और मैं। तीन भारतीय सत्संगी थे – गुरचेतन सिंह, मिस्टर आर. करीर और मिस्टर हरमिन्दर (महिन्दर) आहूजा ।

25 दिसम्बर

आज सुबह साढ़े नौ बजे हमारी पार्टी ग्रेड कैबरलैण्ड प्लेस पर इकट्ठी हुई, जो कि लन्दन का सत्संग केन्द्र है। कई भारतीय तो विदा करने के लिए हवाई अड्डे तक हमारे साथ ही आ गये। जब हम वहाँ पहुँचे तो कुछ धुन्ध शुरू हो गयी, पर यह जल्दी ही खत्म हो गयी। हमने ठीक समय पर उड़ान भरी और सबकुछ ठीक-ठाक रहा। हम कॉमेट जैट द्वारा यात्रा कर रहे थे।

26 दिसम्बर

हमारा यह हवाई सफर निर्विघ्न रहा। सूर्य अस्त होने से थोड़ा पहले हम रोम पहुँचे, अन्धेरा होने के बाद मिस्र की राजधानी काहिरा पहुँचे। वहाँ से दोहा और 10.35 पर कराची पहुँचे। कुछ घण्टे बाद हम एक अन्य कम्पनी के जहाज पर चढ़े जिसने शाम के पाँच बजे दिल्ली पहुँचना था। कस्टम वालों में हमें काफ़ी देर परेशान किया, जिस कारण हम ब्यास जाने वाली गाड़ी न पकड़ सके। दिल्ली मुख्य स्टेशन के एक सत्संगी रेलवे अफसर ने हमारे शाम के खाने और रात गुजारने का प्रबन्ध कर दिया।

27 दिसम्बर

आज सुबह हमने रेलगाड़ी से अपनी यात्रा आरम्भ की। शाम को अन्धेरा होते पर हम व्यास पहुँचे। यहाँ हम उन मित्रों से मिले जो हमें लेने के लिए स्टेशन पर आये हुए थे। यह बहुत खुशी भरा समय था। हमारे इन मित्रों में महाराज जी की धर्मपत्नी श्रीमती हरजीत कौर और मिसेज श्री जॉनसी भी थी। मिसेज श्री जॉन्सी हममें से एक थीं, पर हमसे पहले ही भारत आ गयी थी। हम सभी के लिए सवारी का उचित प्रबन्ध कार भारतीय सरंगियों के लिए एक बस और हमारे सामान के लिए एक ट्रक था। हम इसके पीछे-पीछे महाराज जी की कार में आये।

जब हम डरे पहुंचे तो महिन्दर जी ने जो महाराज जी के बचपन के मित्र थे, मुख्य गेट से हम सबके एक साथ चलने का प्रबन्ध किया। हम सभी लैम्पों द्वारा की गयी रोशनी में से गुजरे जब कि भारतीय संगत साथ-साथ विनती के शब्द गा रही थी। हम बड़े बरामदे में से होते हुए, गेट को पार करके महाराज जी के सुन्दर बाग़ में पहुँच गये। डेरे दोबारा आने की ख़ुशी और थकावट के मिले-जुले प्रभाव से मुझे इर्द-गिर्द इस तरह महसूस हो रहा था जिस तरह किसी ऊपरी मण्डल के अनुभव की धुंधली सी याद आ रही हो। अब हम महाराज जी की कोठी में पहुँच गये। कोठी रोशनी से जगमगा रही थी। हमारे शब्द गाने की आवाज़ अब कोमल और धीमी हो गयी। सेवादार हमारा स्वागत करके हमें महाराज जी की बैठक में ले गये। थोड़ी देर बाद हुजूर आये और हमारे साथ बैठ गये। महिन्दर जी ने एक-एक करके हमारी जान-पहचान करवायी। महाराज जी बैठे-बैठे मुस्कराते और सिर हिलाते रहे। उनके चेहरे के अन्दाज़ में अकह प्यार था। हमें इस तरह महसूस हो रहा था जैसे हमारे सफ़र की सारी थकावट दूर हो गयी हो ।

28 दिसम्बर

भण्डारे की संगत आनी शुरू हो गयी है। सत्संग घर के विशाल मैदान में पंजाबी में सत्संग हुआ। एक बात जो महाराज जी ने समझायी वह यह थी कि नामदान के समय हमें दो टाँगें दी जाती हैं जिन पर चल कर हमें सचखण्ड जाना है। पहली टाँग सुमिरन है। जब हमें यह टाँग मज़बूती से आगे टिकानी आ गयी, तो हम दूसरी टाँग का उपयोग करना सीखते हैं जो कि ध्यान है। इन दोनों टाँगों के सहारे हम मजबूती से शब्द की सीढ़ी तक पहुँचते हैं और शब्द-धुन के सहारे सचखण्ड के उच्चतम शिखर पर चढ़ जाते हैं।

सत्संग के बाद वापसी में हमें दर्शनों के लिए सीधे महाराज जी के बाग़ में ले जाया गया। दीवान दरियाई लास के जो कि हुजूर के पीछे खड़े थे, शान्ति से बात बढ़ाते हुए धीरे से कहा- यह लोक है कि आपको यह यात्रा लम्बी और कष्टदायक थी, लकिन सोची. महाराज जो आपको मिलने की ख़ातिर सचखण्ड से उतर कर नीचे आये हैं।

एक अमेरिकन सारणी, मिस्टर शिडलो ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि अगर महाराज जी इंग्लैण्ड पधारें तो बहुत-से अमेरिकन सहाय इस अवसर का फायदा उठाकर हुजूर के दर्शन करने के लिए आ सकते हैं। हुजूर ने फ़रमाया, “देखेंगे।

दोपहर के बाद रखना साहिब के मार्ग दर्शन में हम सब लंगर देखने गये। बाबा लोगर में हमें दाल-सब्जियों बनाने वाली बड़ी-बड़ी देगें दिखाई जा रही थी, तब उन्होंने हमें एक बड़ी दिलचस्प घटना सुनायी। एक बार प्रसाद बनाने की रसद के लिए किसी चीज़ की कमी हो गयी, क्योंकि अभी न्यों रसद नहीं पहुँची थी। ड्यूटी वाले सेवादार ने इस समस्या के समाधान के लिए कहा कि महाराज जी कृपा करके प्रसाद बाँटते समय इसकी मात्रा प्रति व्यक्ति एक मुट्ठी (जो आम तौर पर बाँटते थे) से कम कर दें। जब प्रसाद बाँटना शुरू किया तो महाराज को ने सबको दो-दो मुट्ठी बाँट दिया। प्रसाद पर्याप्त नहीं था मगर बाँटने के बाद भी काफी बच गया। फिर महाराज जी ने उस सेवादार को कहा भाई माफ करना पर मेरा खयाल है कि मैंने कोई गलती

एक अन्य अवसर पर हुजूर ने खाना साहिब को कहा “मैं संगत का सेवक हूँ। वह जो चाहती है, मैं वही करता हूँ।” खन्ना साहिब ने हमें बताया कि हुजूर की इतनी नम्रता देखकर सिर खुद-ब-खुद उनके चरणों पर झुक जाता है।

कल भण्डारा है और एक लाख पच्चीस हज़ार लोगों के इकट्ठे होने की सम्भावना है। 80 बसें और 400 तांगों के आने की उम्मीद है। कुछ लोग तो दो-दो सौ मील पैदल चलकर भी आयेंगे।

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