“सच्ची भक्ति: सतगुरु के साथ श्रद्धा, भक्ति-भाव और आध्यात्मिक साधना का सफल संगम”
मैंने सोचा कि सच्ची भक्ति का वास्तविक अर्थ सच्ची श्रद्धा ही है, अपने सतगुरु के साथ और उनकी शिक्षा के साथ इतने भक्ति-भाव और इतनी दूता से प्यार करना कि मार्ग की सभी रुकावटें दूर हो जायें और हम सहज ही सतगुरु में अभेद हो जायें। यह है भक्ति ! सचखण्ड यहीं है. केवल हमारी ही ही बीच में रुकावट बनी हुई है। जब हम अपने मालिक (सतगुरु) को समझ लेते हैं तो हमें औरों की भावनाओं का भी ज्ञान हो जाता है। फिर हमारा सबसे खतरनाक दुश्मन हमारा मन, हमारा मित्र बन जाता है। फिर अपने जीवन के हर हालात में से गुज़रते हुए भी हम अडोल और शान्त रहते हैं। इस अनुभव के बाद हमें ‘आपे’ (मैं) की ज़रूरत ही नहीं रहती और ‘तू’ ही ‘तू’ वाली अवस्था हो जाती है।
मैंने सोचा, “समस्या तो यह है कि मैं इस विचार को हमेशा के लिए अपने मन में स्थिर नहीं रख सकती। जब मैं सत्संग से चली जाऊँगी तो मेरा मन फिर संसार की मुश्किलों से घिर जायेगा। मन की स्थिरता और शान्ति का अलौकिक विचार उसी प्रकार लुप्त हो जायेगा जैसे उस छोटे बालक के जग में से सूर्य का प्रकाश अलोप हो गया था। इस विचार को सँभालकर रखने के लिए मैं क्या कर सकती हूँ?”
मैं अभी यह सोच ही रही थी कि एक बार फिर हुजूर की आवाज़ ने मेरे चेतन मन को बंधा- “हवा में उड़ रहे एक कण के समान, मनुष्य बिलकुल निर्बल और असहाय है उसे सही रास्ते और उद्देश्य की समझ उस समय मिलती है जब उस पर परमात्मा की बख्शिश हो। हम सभी उसके दर के भिखारी हैं और हमेशा अर्ज़ करते रहने पर ही उसकी बख्शिश प्राप्त कर सकते हैं। जब वह दया करके हमारी पुकार सुन लेता है तो हमें सबकुछ बख्श देता है।”
मैंने सोचा केवल लगातार रूहानी अभ्यास करने से ही मैं अपनी आत्मा को सबल बना सकती हूँ। यह तो जीवन की शेष क्रियाओं की तरह ही है कि अभ्यास से ही आत्मबल बढ़ता है।
हुजूर कई बार फ़रमा चुके हैं कि प्रतिदिन कम से कम अढ़ाई घण्टे भजन – सुमिरन करना ज़रूरी है। घुमा-फिरा कर सारी बात सतगुरु पर आ जाती है; केवल वही मुझे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ज़रूरी दृढ़ता और इसको पूर्ण करने के लिए आवश्यक भक्ति भाव प्रदान कर सकते हैं।
सत्संग के बाद हमें पाँच-दस मिनट के लिए फिर दर्शन करने का सौभाग्य मिला, क्योंकि महाराज जी बहुत व्यस्त थे और इतनी विशाल संगत को भी उनके ध्यान की ज़रूरत थी। हमारे कुछ साथी फिर लंगर में हुजूर को भोजन पर दृष्टि डालते हुए देखने गये। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद हमें फिर बुलाया गया, ताकि हम हज़ारों सत्संगियों को सेवा करते देख सकें। संगत दरिया के किनारे स्थित टीलों से मिट्टी लाकर गहरे गड्ढों में भर रही थी। ये गड्ढे दरिया के किनारे तक फैले हुए थे और इसलिए भरे जा रहे थे, ताकि गेस्ट हाऊस से डेरे के चारों ओर एक सड़क बन सके।
पहले तो हम संगत की भीड़ से अलग एक तरफ़ खड़े रहे, फिर महिन्दर, हमें महाराज जी के पास गये। महाराज जी उस वक्त एक ऊँचे टीले के ऊपर खड़े थे। मिट्टी उठाकर ले जाते हुए सेवादार मिट्टी के एक बहते दरिया की तरह लग थे। खुदाई वाले स्थान से भरी टोकरियाँ उठाकर सेवादार, हुजूर के पास से होकर, एक तरफ़ से गुज़र कर और दूसरी तरफ़ से ख़ाली टोकरियाँ उठाकर, भाग कर खुदाई वाली जगह पर चले जाते। छोटे-बड़े, ऊँचे-नीचे, हर वर्ग के लोग खुशी-खुशी शब्द गाते मिट्टी उठा रहे थे तथा भक्ति-भाव और प्रेम से गद्गद उनके चेहरे बार-बार महाराज जी की तरफ़ मुड़ते रहते थे। एक समय उन्होंने हुजूर के नज़दीक होने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे वे अपना रास्ता ऊँचा करते-करते हुज़ूर के बिलकुल नज़दीक आ गये और उनको चारों तरफ़ से घेर कर खड़े हो गये। सेवादार उनको वहाँ से हटाकर यथोचित स्थान पर ले गये और दोबारा सेवा में लगा दिया।
महाराज जी ने हमारे साथ बातचीत करने का समय निकाल लिया। उन्होंने फ़रमाया कि हो सकता है कि इस प्रोजेक्ट को पूरा होने में दो साल लग जायें, क्योंकि ज़्यादा प्रगति केवल बड़े सत्संगों या भण्डारों के अवसरों पर ही हो सकती है। आपने कहा कि इसमें शीघ्रता की कोई जरूरत नहीं।
अगले दिन बहुत से अभिलापियों को नामदान मिलना था। हुज़ूर इस बात पर सहमत हो गये कि हम भी समागम में उपस्थित हो सके। हमें चुपचाप बैठकर दर्शन करने और सारी कार्यवाही के फ़ोटो लेने की आज्ञा मिल गयी। महाराज जी सारी संगत पर प्रेम और दया भरी दृष्टि डाल रहे थे और उनकी नज़रें हर चीज़ को ध्यान से देख रही थीं।
आज सत्संग में हजुर ने हमारे मुखिया खन्ना साहिब को कहा, “तुम्हारा एक आदमी अनुपस्थित है।” यह बात इसलिए आश्चर्यजनक थी कि संगत की गिनती हज़ारों में थी। उन्होंने यह भी देखा कि फ़ोटो कौन खींच रहा है और अन्य कई छोटी-बड़ी घटनाएँ जिनकी तरफ़ आम इनसान का ध्यान ही नहीं जाता, हुजूर की नज़र में थी। बहुत दर तक वे दो स्त्रियों की तरफ देखते रहे। उनमें से एक बच्चे को दूध पिला रही थी। दूध पी कर जब बच्चा सो गया तो उसे पास ही लिटाकर, महाराज जी की निगरानी में छोड़कर वे दोनों फिर सेवा में लग गयीं। यह प्रेम और विश्वास की दिल को छू लेनेवाली मिसाल है।
हर जीव को सेवा करने का मौक़ा दिया जाता है। एक वृद्ध नेत्रहीन बीबी जो ऊँचे-नीचे और टेढ़े-मेढ़े रास्ते से बचकर नहीं गुज़र सकती थी. संगत के जोड़ों और कपड़ों की रखवाली कर रही थी। एक अन्य बूढ़ा बाबा ख़ाली और भरी टोकरियाँ ले जानेवालों की लाइनों के बीच, “बायें हाथ चलो जी” कहने के लिए खड़ा था। मिट्टी की सेवा करनेवाले शहतूत की बनी टोकरियाँ सिरों पर उठाकर ले जाते हैं। ये टोकरियाँ सिर पर न चुभे, इसलिए वे कपड़ों की कतरों से बने बिन्नू सिर पर रखते हैं। ऐसा प्रतीत होता था कि हरएक आदमी ज्यादा से ज्यादा कर्मों का हिसाब चुकाना चाहता है। वह जिद्द करता था कि मेरी टोकरी, दूसरों से दुगनी भरी जाये। फिर वह भरी हुई टोकरी उठाकर पूरी गति से दौड़कर फेंकने जाता था।