हुज़ूर के साथ जंडियाला का सफ़र। राधा स्वामी सत्संग व्यास

आज भी मुझे हुज़ूर के साथ अपने सम्बन्ध का वहीं अनुभव हुआ। गुरचेतन सिंह के गाँव जंडियाला के लिए चलने से पहले हम सुबह-सुबह महाराज जी के बाग़ में, उनके दर्शनों के लिए गये। हुज़ूर के हुक्म के अनुसार केवल बर्तानिया के ग्रुप ने ही जंडियाला जाना था जिसमें अंग्रेज़ और भारतीय दोनों शामिल थे। सिर झुकाकर और इस सफ़र के लिए आशीर्वाद लेकर, हमने महाराज जी को ‘राधास्वामी’ बुलाई। हुजूर ने इसका उत्तर ऐसी प्यार भरी आवाज़ में दिया जिससे हम सभी को यह अनुभव हुआ जैसे हममें से प्रत्येक उनका लाड़ला बच्चा है और प्रत्येक को उनका आशीर्वाद प्राप्त है। विदाई तो ली जा चुकी थी, पर हम एक तरह से सर्वसम्मति के साथ, उनके इर्द-गिर्द चुपचाप खड़े थे। उनकी प्यार भरी हुज़ूरी में से जाने को दिल नहीं करता था। मैंने कहा, ” अब हमारा किसी का दिल आपसे दूर जाने को नहीं करता।” हम सब हँस पड़े। यह साँझा अनुभव हम सबको अचानक हुआ, पर इसका वर्णन शब्दों में कर सकना सम्भव नहीं ।

उस गाँव का सफ़र हमने दो गाड़ियों में किया, एक हुजूर की जीप और दूसरी उधार ली हुई कार थी। यह बहुत ख़ुशी भरा दिन था। यहाँ प्रतिदिन धूप निकलती है और मौसम सुहावना होता है। जंडियाला पहुँचने पर हमारा बहुत प्रेम और ख़ुशी से स्वागत किया गया। सबसे पहले हमें गुरचेतन के सुपुत्र और अन्य सम्बन्धी मिले। लन्दन के एक अन्य सत्संगी, मोहन सिंह के पिता जी मिले, जिनकी शक्ल अपने पुत्र मोहन सिंह से मिलती थी । उनको देखकर यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि भविष्य में मोहन सिंह किस तरह से दिखाई देगा। बड़े शौक़ से स्वागत करते, भोले-भाले ग्रामवासी हमें एक जुलूस के रूप में गुरचेतन के घर ले गये। वहाँ गुरचेतन सिंह की सुन्दर धर्मपत्नी और बेटी ने हमारी आवभगत की। वे हमसे बहुत प्यार से मिलीं। हम छत पर चढ़ गये। समतल छत पर एक लम्बे मेज़ पर हमारे लिए बढ़िया भारतीय खाना लगाया गया था। हमारे ऊपर रंग-बिरंगा शामियाना लगा हुआ था और इर्द-गिर्द रंग बिरंगी कनातें लगी हुई थीं। फिर भी नज़दीक की छतों से बहुत-से मासूम लड़के-लड़कियाँ चुपचाप हमारी तरफ़ देख रहे थे। जब हमने घूमकर उनकी तरफ़ देखा तो वे ख़ुशी से ऊँचे-ऊँचे हँसने और चिल्लाने लगे। जब हमने उनकी तरफ़ कैमरे किये तो वे दौड़ पड़े पर बाद में हमने ख़ुशी और मित्रता के माहौल में उनकी तस्वीरें खींचीं। मेहमान नवाजी का यह सारा वातावरण प्रेम और आनन्द से भरपूर था।

दोपहर के भोजन के पश्चात् हमें गाँव का चक्कर लगवाया गया। गाँव के लोग, बच्चे, कुत्ते और मुर्गियाँ सब हैरान थे, क्योंकि पिछले तीस सालों से यहाँ किसी ने गोरा चेहरा नहीं देखा था। यह सबकुछ ख़ुशी प्यार और सम्मान के वातावरण में ऐसे हो रहा था जैसे कि बर्तानिया की 71 महारानी शाही दौरे पर यहाँ आयी हो। गली में हमें अचानक एक औरत ने आलिंगनबद्ध कर लिया। बाद में पता लगा कि वह मोहन सिंह की पत्नी है। वह मध्यम ऊँचाई की सुन्दर स्त्री थी। यह हमें अपने छोटे-से साफ़-सुथरे घर में ले गयी। हम दो चारपाइयों पर लाइनों में बैठ गये। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे गाँव के सारे लोग इकट्ठे हो गये हों। कुछ साथ वाले कमरे में थे और बाक़ी के दरवाज़े के आगे । मोहन सिंह की पत्नी के कहने पर एक तरफ का दरवाजा हवा आने के लिए खोल दिया गया, पर वहाँ दरवाजे पर भी भीड़ उसी तरह से खड़ी थी, शान्त, पर उत्सुकता से भरी । मेरे और बाक़ी सबके मन में हज़रत ईसा के समय का दृश्य उभर आया: कमरा खचाखच भरा हुआ था। कुछ लोग लकवे से ग्रसित एक आदमी को ईसा मसीह को दिखाने के लिए ले आये। कमरा इतना भरा हुआ था कि आदमी को छत तोड़कर नीचे उतारा गया। अन्तर केवल इतना था कि हमारे मुक्तिदाता (महाराज जी) इस समय हमारे पास नहीं थे। वास्तव में गाँव की सादगी और इर्द-गिर्द का सारा वातावरण ही उस दृश्य को याद करवाने वाला था, जिसका बाइबल में वर्णन है।

फिर हम चाय पीने के लिए छत पर चले गये। चाय का सामान भी बहुत स्वादिष्ट और अच्छे तरीके से परोसा गया था। हम यहाँ पर कई लोगों से मिले, जिनमें कई गैर-सत्संगी भी थे। ऐसे लगता था कि जैसे सारे ही जिज्ञासु हों और परमार्थ के रास्ते पर चलने को तैयार हो उनमें से एक माननीय सिक्ख था जो कि फ़ौज का रिटायर्ड कप्तान था। वह बहुत ही सुघड़ और बुद्धिमान प्रतीत होता था हमें ऐसा प्रतीत होता था जैसे हम इनका सन्तमत में आने का रास्ता साफ़ करने के लिए आये हों। हमें यह सुनकर बहुत खुशी हुई कि महाराज जी का यहाँ पर 29 जनवरी को सत्संग करने का विचार है। बाद में इस बात की पुष्टि भी हुजूर ने स्वयं गुरचेतन सिंह के द्वारा करवा दी। पता लगा कि जब हुजूर ने गुरचेतन सिंह से पूछा कि उसने इंग्लैण्ड कब जाना है, तो उसने जवाब दिया “जितनी देर हुज़ूर मेरे गाँव में चरण नहीं डालते, उतनी देर नहीं जाना।”

वापस आकर हमें फिर अपने प्यारे सतगुरु के दर्शन हुए। हम जंडियाला से डेरा वापस आये तो हुज़ूर अपनी कोठी के पार्क में कुछ लोगों के साथ मुलाक़ात कर रहे थे। हम अभी इन्तज़ार कर रहे थे कि शाम के भजन के लिए सायरन बज गया। उस शुभ वातावरण का लाभ उठाते हुए हम चुपचाप बैठे सुमिरन करते रहे। जब महाराज जी हमारे पास आये तो उन्होंने अपने सहज स्वभाव में, अपने देर से आने के कारण हमसे क्षमा माँगी। अपने घर में हमें सुमिरन करने की इज़ाज़त देने के लिए, परमात्मा का धरती पर भेजा गया अपना पूर्ण प्रतिनिधि हमसे क्षमा माँग रहा था !

जब हम अभी जंडियाला में ही थे तो डॉ. श्मिथ जिन्हें हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी से नामदान मिला था, हवाई जहाज़ द्वारा डेरे पहुँच चुके थे।

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