ek nyaa jeevn ॥ santon kee vaanee Ashok Kundu
1943 में कर्नल सांडर्स रिटायर होकर इंग्लैण्ड चले गये। मैंने डेरे आना जारी रखा, पर दक्षिण-पूर्वी एशिया में युद्ध की सरगर्मियाँ तेज़ हो जाने के कारण मेरी ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयीं। इसलिए मेरे डेरे आने के मौके और यहाँ ठहरने के दिनों की गिनती कम हो गयी। 1945 में युद्ध समाप्त हो जाने के बाद मेरा स्वास्थ्य एक बार फिर काफ़ी ख़राब हो गया। डॉक्टरों ने मुझे सख्त हिदायत दी कि पूर्व (यानी भारत) में रहना अब मेरी सेहत के लिए हानिकारक होगा। इस डॉक्टरी रिपोर्ट के आधार पर मुझे सैनिक नौकरी से रिटायर कर देना जरूरी था।
एक नया जीवन: संतों की वाणी
जनवरी 1946 में मैं कई वर्षों के बाद अन्तिम बार डेरे आयी। महाराज जी ने बड़े प्रेम और स्नेह के साथ मेरी आवभगत की। वे मेरे भविष्य के बारे में काफ़ी चिन्तित थे। मुझे पूछने लगे कि इंग्लैण्ड में मुझे रिहायश के लिए स्थान मिलने की क्या सँभावना है? युद्ध और इसके परिणामों के कारण रिहायश की उस समय एक बड़ी समस्या थी। महाराज जी को मेरे बारे में ऐसे ही चिन्ता थी जैसे पिता को अपनी पुत्री के बारे में होती है। उनको आशा थी कि मेरे इंग्लैण्ड पहुँचने पर वहाँ के सत्संगी प्यार और सम्मान के साथ मेरा स्वागत करेंगे।
अप्रैल 1946 में समुद्री जहाज़ पकड़ने से पहले, उनसे आज्ञा लेने के लिए, एक बार फिर मैं उनको दिल्ली में मिली। उनसे दया- मेहर प्राप्त करने के लिए मैं आदर सहित झुककर उनके सामने बैठ गयी। उन्होंने मुझ पर ऐसी दया-दृष्टि डाली जिससे मुझे लगा कि वे मेरे दिल की वेदना से भली-भाँति परिचित हैं। मुझे महसूस हो रहा था कि मैं बीमारी की हालत में अपना घर और देश छोड़कर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ़ जा रही थी, पर सबसे ज़्यादा दुःख मुझे इस बात का था कि शायद मैं देह-स्वरूप में उनके फिर कभी दर्शन नहीं कर सकूँगी और उनकी उपदेश देनेवाली प्यार भरी आवाज़ कभी न सुन सकूँगी। जब उन्होंने प्यार और दया-भरा हाथ मेरे कन्धों पर रखा, तो हे मेरे प्रीतम ! उसी समय मुझे अपने अन्दर आकाश की सभी दिव्य-ध्वनियों का संगीत सुनाई देने लगा।