Satsang bayas me namdan ॥ Sant Rajender singh Ji Maharaj Ki kitab ॥ Ashok Kundu

ब्यास से मेरे जाने से एक दिन पहले मिसेज़ जॉनसन ने मेरी महाराज जी से मुलाक़ात करवायी। इस मुलाक़ात में उन्होंने दबाव डालकर मेरी सिफ़ारिश की कि शाकाहार की शर्त के अतिरिक्त मैं नामदान के लिए हर पहलू से तैयार हूँ। उन्होंने बहुत अच्छे माहौल में महाराज जी से विनती की कि नामदान के पाँच शब्दों में से मुझे कम से कम एक शब्द ही बख़्श दिया जाये। उनकी इस निराली माँग पर महाराज जी हँस पड़े। महाराज जी उनको ‘गुरु प्यारी’ कहकर बुलाया करते थे। महाराज जी की आँखों में उनके लिए प्यार झलक रहा था। उन्होंने हँसते हुए फ़रमाया, “अगर एक देना है, तो पाँचों ही क्यों न दे दूँ?”

“तो फिर पाँचों ही दे दीजिये।” उन्होंने तुरन्त जवाब में कहा ।

” पर यह तो अभी तक मांस खाती है।” महाराज जी ने फिर कहा।

“तो क्या हुआ, क़सूर इसका नहीं। वह मांस खाना तो नहीं चाहती।” उन्होंने मेरा पक्ष लेते हुए कहा, जब कि मैं पास ही खड़ी अपना पूरा जोर लगाकर आँखों से ही मिन्नतें करती रही।

“ठीक है, जब मैं दिल्ली में से होता हुआ जाऊँगा, तो देखेंगे”, बात मानते हुए महाराज जी ने कहा। बाद में ऐसा ही हुआ, लेकिन उस समय तक महाराज जी ‘गुरु प्यारी’ को अपने सुख-धाम (सतलोक) ले जा चुके थे। मिसेज़ जॉनसन फरवरी महीने में लाहौर अस्पताल में चोला छोड़ गयीं। मार्च में जब महाराज जी दिल्ली कर्नल सांडर्स के बँगले पर पधारे तो मुझे वहाँ हाज़िर होने का हुक्म मिला। मुझे पाँच नाम की बख्शिश हो गयी।

अगली गर्मियों में, गठिया की बीमारी हो जाने के कारण, मैंने एक ऐसे डॉक्टर की सलाह ली जिसके बारे में मुझे पता था कि वह मुझे इलाज के दौरान परहेज़ के तौर पर शाकाहार करने की सलाह देगा। मेरी इस नयी सोच को मेरे माता-पिता ने भी ख़ुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। मेरे माता जी ने पूछा, “तू तो इस विचारधारा (philosophy) के बारे में बहुत गम्भीर है, है न?” और उन्होंने इस बात का संकेत दिया कि वे मेरा विरोध नहीं करेंगे, अगर इस तरह के इलाज से मेरी सेहत पर बुरा प्रभाव न पड़े। निश्चय ही यह तजरबा सफल हुआ, क्योंकि मुझे सन्तुलित और पौष्टिक भोजन की सलाह दी गयी थी। मैंने शाकाहार का उसूल अपना लिया, जिसका बहुत कम लोगों को तजरबा है ।

अक्तूबर की छुट्टियों में नामदान की दूसरी कड़ी शब्द- धुन प्राप्त होने के रास्ते में अब कोई रुकावट नहीं रह गयी थी। मैं कर्नल साहिब के साथ व्यास आयी। नामदान का यह बाक़ी हिस्सा अधिक महत्त्वपूर्ण था। यह असली नामदान है, जब सतगुरु आत्मा को शब्द के साथ जोड़ते हैं।

नामदान की इस बख्शिश से चौबीस घण्टे पहले मैंने किस तरह कष्ट सहकर अपने कर्मों का भुगतान किया, इस बारे में मुझे अच्छी तरह याद है। मुझे इतना तेज़ सिर-दर्द हुआ कि जैसे मेरी जान निकल रही हो। मुझे शायद ही पहले कभी ऐसा सिर-दर्द हुआ हो। उस दिन कर्नल साहिब और रानी राजवाड़े ने मुझे उठाकर महाराज जी की हुजूरी में पेश किया, पर अन्तर में मेरी जो आनन्दमयी हालत थी उसका जिक्र मैं यहाँ नहीं करूँगी।

मुझे अकसर यह सोचकर हैरानी होती है कि महाराज जी ने किस सहज भाव से मुझे अपने सेवकों में शामिल कर लिया। मैं जवान थी और अपने आपमें मस्त रहती थी। नामदान की बख्शिश प्राप्त करनेवाली मैं बर्तानिया की पहली औरत थी। उन्होंने दया करके मुझे अपनी शरण में ले लिया। (मेरे माता-पिता की तसल्ली के लिए) उन्होंने मुझे इस मार्ग पर लाने का साधन एक ऐसे अफ़सर को बनाया जो मेरे पिता जी के ही विभाग के थे। मेरी आवभगत उस दयालु अमेरिकन बीबी ने की, जिसने पहली मुलाक़ात से ही मुझे अथाह प्रेम देना शुरू कर दिया था। प्रेम की प्रतिमा, एक भारतीय बुजुर्ग बीबी मेरी धर्म-माता बनकर मिल गयी, जिसने नामदान के समय मुझे पूरा सहयोग दिया। हे मेरे प्यारे सतगुरु, अपने चरणों में लाने के समय से ही आपने हर पल मुझे कितना प्यार बख़्शा है।

उसी वर्ष महाराज जी के सेक्रेटरी राय साहिब हरनारायण जी चोला छोड़ कर ऊँचे रूहानी मण्डलों में चढ़ाई कर गये। रिवाज के अनुसार एक साल बाद डेरे के बड़े हॉल, सत्संग घर में उनकी बरसी मनाई गयी, जिसकी अध्यक्षता महाराज जी ने स्वयं की। कर्नल मार्टिन मुझे और कर्नल सांडर्स को डेरे में मिले और हम तीनों ही इस समागम में शामिल हुए। दिन का तीसरा पहर था और दरवाज़ों में से तीखी धूप अन्दर आ रही थी। संगत थोड़ी थी डेरा निवासी, सेवादार और कुछ भारतीय जिज्ञासु । बाद में हमने आपस में विचार-विमर्श किया। जिससे भी बात हुई, उसने ही आनन्द और मस्ती के अनुभव का वर्णन किया। दृश्य जो कि पहले ही रंगीन और आनन्दमय था और भी उज्ज्वल हो गया, जैसे उस पर इन्द्रधनुषी रंग बिखेर दिये गये हों। सभी के चेहरों पर ख़ुशी की चमक थी। महाराज जी तो सूर्य के प्रकाश की तरह स्वाभाविक ही एक अलौकिक ज्योति चक्र में घिरे हुए थे। सबकुछ साधारण होते हुए भी ऐसा प्रतीत होता था जैसे कोई अलौकिक शक्ति काम कर रहीं हो। हम हॉल में से निकल आये, पर वह ख़ुशी और सरूर अब भी हमारे साथ था। मेरे हृदय में इस दृश्य की याद अभी तक ताज़ा है।

छुट्टी ख़त्म होने पर मेरा अपने साथियों से पहले ड्यूटी पर पहुँचना ज़रूरी था। प्यारे सतगुरु जी, आपको याद होगा कि उन दिनों लाहौर से दिल्ली जानेवाली गाड़ी ब्यास कभी-कभार ही रुकती थी। इसलिए मुझे पहले किसी मुसाफ़िर गाड़ी से लाहौर पहुँचकर वहाँ से दिल्ली के लिए फ्रंटियर मेल पकड़नी पड़ती थी। इसके लिए ज़रूरी था कि मैं शाम के सत्संग की समाप्ति से पहले ही डेरे से चल पहूँ । मुझे पहले ही महाराज जी से आज्ञा मिल चुकी थी कि मैं समय होने पर चुपचाप सत्संग से चली जाऊँ । आज्ञा के अनुसार समय होने पर मैं जाने के लिए उठ खड़ी हुई। हुज़ूर बात करते-करते रुके और मुस्कराते हुए बोले, “तुझे जाने की इतनी जल्दी क्यों है?” इस अचानक कही बात से मैं घबरा गयी। मुझे परेशान देखकर, हुज़ूर ने दया भाव से कहा, “अच्छा फिर तेरा जाना ही ठीक है।” मैं चल पड़ी, पर मुझे कितना दुःख हुआ जब लाहौर – दिल्ली जानेवाली मेरी तेज़ गाड़ी, प्रोग्राम न होते हुए भी ब्यास स्टेशन पर आकर रुक गयी और इतनी देर रुकी रही कि अगर मैं ब्यास से भी चढ़ना चाहती तो बड़े आराम से चढ़ सकती थी। मैंने उदास मन से गाड़ी के डिब्बे में दाखिल होने की कल्पना की और सोचा कि अगर मैंने सतगुरु के वचनों पर भरोसा कर लिया होता तो मैं ब्यास से ही गाड़ी में चढ़ रही होती। इस घटना से मैंने यह सीख ली है कि जब सतगुरु किसी काम या विचार के बारे में इशारा करें तो अपने आपको उनके सपुर्द करके उनके भाणे पर छोड़ देना चाहिए, चाहे उस समय हमें उनकी बात कितनी भी असम्भव या अनहोनी क्यों न लग रही हो।

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